Thursday 30 December 2010

आस के तार न तोड़ सखी

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मन की ज्वाला रोक सखी 
अश्रु  की धारा रोक सखी
क्यों शोक भार से चूर्ण सखी ?
धैर्य की डोर ना छोड़ सखी !

कटु बोल सब भूल सखी 
मरहम की कोई ले ओट सखी
विकार न जला डालें तुझको 
तम-वर्षा को बस झेल सखी  !

आस के तार न तोड़ सखी 
कोई श्रम कर इनको जोड़ सखी 
टूटा जो तारा इस रात सखी
ना जाने क्या हो उत्पात सखी !

प्रियतम तुझे इक दिन समझेंगे 
अनुराग  विराग सब छोड़ सखी 
माना अरुणोदय  हुआ  नहीं 
निशी का जाना निश्चय सखी !

अब कैसा  ये कोप सखी 
पावन धारा को मोड़ सखी 
मुख से दृगजल पोंछ सखी
प्रेम सागर से मोती खोज सखी !

Thursday 23 December 2010

एक कोशिश

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तमस भाव से
अंतस जब पूरित होगा
रूप बदलते जीवन से
नभ भी भरमाया होगा
कुंठाए फैलेंगी चहुँ ओर 
विकारों के दल दल में 
बोलो कैसे प्रेम सृजित होगा ?

कैसे दुख छिप जायेगा 
कैसे आहें थम पाएंगी ?
शब्दों के जब बाण चलेंगे 
गीली पलकें तब 
कैसे मल्हार सुनाएंगी ?

निर्मल रस का अंतस में 
आविर्भाव तो करना होगा 
उजले सूरज की चाहत में 
मन के अहम् को हरना होगा 
अमृत की बूंदे जो ...
सूख चली हैं मन आँगन में 
फिर से उनको 
जीवन तो देना होगा.



Tuesday 7 December 2010

वक्त तो लगता है...

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पुराने रिश्तों के घाव गहरे हों तो 
नए रिश्ते बनाने में वक्त तो लगता है.

डूबे ही गहरे हों दरिया-ए-इश्क़ में तो
उससे निकल आने में वक़्त तो लगता है.

बांधे जो बंधन प्यार में, बेरुखी से हों चटके तो 
दौर -ए-मातम गुजरने में वक़्त तो लगता है.

गांठे उलझी तो क्या रिश्ताक्या बंधन, क्या प्रीत
लाख कोशिश करो सुलझाने में वक़्त तो लगता है.

हम तो दर्द की दवा ढूँढते ही रह गए जानम
ज़ख़्म-ए-नासूर सीने में वक़्त तो लगता है.

मुहब्बत की राहों में कांटे होने तो लाज़मी हैं
जब रूह ही बेवफा हो सँभलने में वक़्त तो लगता है

आज की नारी ...

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आज जहाँ देखो नारी के अधिकार की आवाज़ उठती है...लेकिन नारी इस अधिकार की आवाज़ में अपनी आत्मा की आवाज़ को खुद ही अनसुना किये जा रही है...तो लीजिए कुछ विचार पेश हैं नारी के विकास पर...आप सब पढ़ कर अपने विचारों से कृतार्थ करें ये निवेदन है....



आज स्त्रियों की समस्या को लेकर समाज में एक तूफ़ान, एक तहलका सा मचा हुआ है.  शायद कोई पत्रिका, कोई ब्लॉग ही बचा हो जो  स्त्रियों के स्तंभ के लिए सुरक्षित न हो. सब जगह विवाद हो रहे हैं, प्रस्ताव पास किये जा रहे हैं. लेकिन यह सारा बवंडर, सारा आंदोलन जीवन की उपरी सुविधाओं तक सीमित है और इसलिए हम देखते हैं कि इन सब के बावजूद स्त्रियों के सच्चे सुख में कोई वृद्धि नहीं हो रही है. ना ही स्त्रियां सतीत्व के सच्चे आदर्श कि ओर उठ रही हैं. ना उन्हें कोई आत्मिक सुकून मिल रहा है .कदाचित कौंसिलों में जाना, अखबारों में लेख लिखना, सभा सम्मेलनों एवं संस्थाओं की अध्यक्षता, दफ्तरों में काम करना आदि ही आगे बढ़ना नहीं है, निश्चय ही इनके भी दरवाजे सब के लिए खुले होने चाहियें, लेकिन इस से व्यक्तित्व का विकास होता है आत्मा का विकास नहीं. आज की नारी शक्ति की स्त्रोत है, पुरुष से अधिक नारी के कन्धों पर समाज की उन्नत्ति का भार है.


नारी जरा से नशे में अपनी मर्यादा, अपने मातृत्व का महान गौरव भूल गयी है . अधिकार ! कैसा मोहक, मायावी, जाल में फ़साने और नशे में विस्मृत कर देने वाला शब्द है ये . नारी भी इसका शिकार हो गयी है.

आज नारी को भी कुछ चाहिए. पुरुष अस्थिर, अतृप्त, अस्त-व्यस्त और गतिमान है तो वह क्यों न हो ? उसे भी गति का आनंद, उसके झोंको एवं आन्धियों में गिरने और उड़ने का स्वाद क्यों न लेने दिया जाये ? बस इसी सोच पर अटकी है आज की नारी की सोच.

पुरुष तो स्वार्थी है, बेवफा है और हमने तो सदा त्याग किया है, कब तक त्याग करती रहें ? इसलिए उस त्याग को छोड़कर हम भी उनकी कोटि में क्यों न आ जाएँ ?  आज सारा ध्यान पुरुष की नक़ल करने में ही नारी अपनी सफलता मानती है . आज नारी असंतुष्ट और अतृप्त है, फल्तह वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण भी नहीं कर पाती. उसका हृदय जल रहा है कि वह दासी बनी कब तक बैठी रहे ? इसी कश्मोकश के परिणामस्वरूप कई नारियाँ प्रसिद्धि पा लेने के बावजूद भी दुखी और अतृप्त हैं . उनका हृदय प्यास से भरा है, आत्मा छटपटा रही है . नारी यह भूल गयी है कि उसे स्नेह भी चाहिए.

पुरुष के अज्ञान अथवा परिस्थिति के कारण वर्तमान काल में नारी की जो दशा है उसमे उसने भ्रमवश यह समझ लिया है कि पुरुष नारी से श्रेष्ठ है. जो पुरुष करे, वह स्त्री क्यों न करे - आज नारी ने अपने को अनायास ही लघुता प्रदान कर दी है. क्यों नारी पुरुष बनना चाहती है ? क्या पुरुष उस से श्रेष्ठ है ? श्रेष्ठ तो नहीं था पर अपनी कल्पना एवं अधिकार के नशे में नारी ने अप्रत्यक्ष रूप से उसे श्रेष्ठ बना दिया है. आज नारी के जागरण के इस क्षेत्र में पुरुष ही नारी का नेतृत्व कर रहा है ...या यों कहें कि भ्रमवश नारी पुरुष का ही अंधानुकरण कर रही है . यद्यपि मुंह से कहती है कि वह पुरुष के पीछे चलने को तैयार नहीं, मेरा अपना व्यक्तित्व है लेकिन यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि इन कृत्यों से नारी कि स्वतंत्रता घटी है, बढ़ी नहीं . पुरुष को वह एक मोडल बना कर उसका अनुसरण कर रही है .

परन्तु क्या यह अधिकार पुरुष की प्रतिद्वंदिता से प्राप्त हो सकता है ?  वह नारी जो माता रूपी खिले हुए फूल की पूर्वा-वस्था (कली) है, पुरुष रुपी फल से, जिसे उसने ही जन्म दिया है, बराबरी का दावा करने चली है.  आज वह भूल गयी है कि वह पुरुष की माता है. अतः सदा से ही वो पुरुष से श्रेष्ठ  ही है लेकिन बराबरी के अधिकार की आवाज़ उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता, अपनी कमजोरी का परिचय दे रही है.

आज नारी को समता चाहिए. प्रत्येक देश, समाज, प्रांत, जाती में नारी की स्वतंत्रता की मांग है . यह उचित मांग है . कोई उलटी खोपड़ी और विकृत हृदय व्यक्ति ही होगा जो इसका विरोध करेगा. नारी को ये अधिकार देने का सब को अवश्य समर्थन करना चाहिए. समाज नारी को अपाहिज रख कर देर तक खड़ा नहीं रह सकता. स्वयं पुरुष नारी बिना अशक्त है.अथार्त जीवन की रचना संभव नहीं. स्त्री पुरुष दोनों ही इसमें सहयोगी हैं. एक दूसरे के दोनों पूरक अंग हैं. दोनों मिलकर एक सम्पूर्ण इकाई की रचना करते हैं. इसलिए बराबरी का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता. तब स्वतंत्र व्यक्तित्व और बराबरी के अधिकार का तहलका मचाना ना स्त्रियों के लिए कल्याणकारी हो सकता है ना अपने अधिकारों एवं मर्यादा का दुरूपयोग करना पुरुषों के लिए लाभदायक है. 

लेकिन नारी कभी सोचे कि क्या इन मांगो से या इन मांगों के पूर्ण हो जाने से नारी - हृदय की प्यास बुझ जायेगी ? नारी - हृदय की प्यास तभी मिट सकती है जब वह अपने में नारी की सच्ची प्रतिष्ठा करे और यह प्रतिष्ठा पुरुष हृदय के पूर्ण सहयोग से ही संभव है. नारी पिता, पुत्र, भाई किसी न किसी रूप में पुरुष को आत्मार्पण करने को अपनी आंतरिक  प्रेरणा और प्रकृति द्वारा बाध्य है इसी में उसके मातृत्व का, पुरुष की माता होने का गौरव सुरक्षित है और पुरुष  इस भावना को व्यवहारिक रूप देने वाला, बढाने वाला सहायक और साथी है. इसलिए स्त्री जीवन का उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक वह पुरुष का सहयोग प्राप्त ना कर ले. यही हाल पुरुष का भी है. बेशक कुछ समय के लिए पुरुष अपना अस्तित्व स्वतंत्र रख ले, परन्तु बिना नारी के आत्मार्पण के अपने को अधूरा अनुभव करता है.यही वह नारी है जो पुरुष नहीं है और ना ही हो सकेगा.

पुरुषों का भी  होश तब तक ठिकाने नहीं आ सकता जब तक स्त्रियां भी उन्ही के सामान शक्तिमान न हो जाएँ. और इसके लिए स्त्रियों की ओर से मांग इस बात की होनी चाहिए कि हमारी तरह पुरुष भी अपने जीवन व्यापी बंधन के प्रति वफादार बनें. हमारी तरह वे भी जीवन में आत्मार्पण करें. वे भी विवाहित जीवन कि जिम्मेदारियों और बोझ को प्रेम-पूर्वक निबाहे और उठायें. 

आज का युवक परिस्थितियों के आगे झुक जाने वाला, कठिनाइयों के बीच रो देने वाला, चिडचिडा और असंयमी हो गया है. वह बोलता बहुत और चाहता अधिक है....आखिर क्यों? यह दुर्भाग्य की बात है की जिसके त्याग का दूध पी कर वह शक्तिमान होता था, जिसका अमृत पीकर समाज में बच्चे उठते थे वो माता का आँचल उनके ऊपर से हटता जा रहा है .  नारी के इस कार्य की तुलना पुरुष के कौन से श्रेष्ठ कार्य से हो सकती है ? जिनका त्याग प्लेटफोरमस पर नहीं बोलता, बल्कि बच्चे के जीवन में अंकुरित होता और पनपता है. जो अधिकार की नहीं, प्रेम की भूखी है - उस प्रेम की जिससे बढ़ कर कोई अधिकार नहीं. और इस प्रेम और सम्मान को, जिसे पाकर और कुछ पाने की इच्छा नहीं रह जाती. नारी ही एक ऐसी त्यागमयी मूर्ती है जो प्रतिदान की आशा नहीं रखती. एक नारी ही इतनी श्रेष्ठ है जो सुघड़ता से अपनी चहुंमुखी जिम्मेदारियों को सहर्ष स्वीकार कर के निभा सकती है. फिर क्यों नारी ऐसी आवाज उठा कर खुद अपनी श्रेष्ठता को कम कर अपनी लघुता का परिचय दे रही है. नारी तो सदा से श्रेष्ठ और पूज्य थी, रही है और रहेगी.

Wednesday 1 December 2010

मवाद..

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कितनी ही 
अनकही बातों का
घना जंगल 
और 
कंटीली झाडियाँ हैं
भीतर वजूद में
जिनमें  घुसने में 
खुद को भी 
भय लगता है.


मानो ...
रक्त-रंजित कर देंगी 
मुझे
इस जंगल के 
भीतर के जहरीले 
अहसासों की नागफणी..
और भर देंगी 
मवाद से 
मेरी रूह को,
दर्द से भरी
ऊपर तक 
चढती हुई बेलें.


मैंने अपने आप को 
समेट लिया है 
अपने ही खोल में 
और मूँद ली हैं आँखे,
कि...
मैं डर रही हूँ ....
इन खामोशियों के 
नीचे दबे 
बाहर आने को व्याकुल 
उस तूफ़ान से 
जो कि काफी है 
लील लेने के लिए 
मेरी जिंदगी को .

Wednesday 24 November 2010

आओ चलो संवाद करते हैं..

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दो दिलों के 
मनोभाव 
टकराने लगे हैं.
एक दूसरे के 
सारे सहयोग द्वार 
बंद होने लगे हैं.
दो परिपक्व सोचों में 
द्वन्द खड़ा हो गया है .
विकारों का जहर 
भरने लगा है .
संवाद भी अब 
दम तोड़ चुके हैं.
खामोशियों का 
पटाक्षेप हो चला है .
बिसूरती चाहतें 
मनोबल खोती सी 
अपनी ही जमीन में 
गढती जा रही हैं.
अंधेरों को 
अग्रसर होती 
जीवन अभिलाषा 
खुद को कोसती 
अपने ही खोल में 
घुस जाने को
मजबूर, 
नैराश्य की 
चरम सीमा पर है .

कैसे उजास की किरण 
फूटेगी ?
कैसे विकारों के 
बाण शांत होंगे ?
कैसे मन से 
एक बार फिर 
प्यार के सेतु 
टूटेंगे ?
आओ चलो 
संवाद करते हैं 
आओ चलो 
एक बार फिर 
कुंठाओं का 
बहिष्कार करते हैं.
आओ चलो ना 
एक बार फिर 
आलिंगन कर 
मनुहार करते हैं 
मनुहार करते हैं !!

Tuesday 16 November 2010

चक्रव्यूह ...


एक पुरानी रचना जो आखर कलश पर प्रस्तुत की गयी थी...एक बार यहाँ आप सब के लिए प्रस्तुत है..



पानी में  कंकड़ फैकना
और लहरों  का
गोल-गोल
फैलते जाना....
कितना मन को लुभता है...,.
मगर कोई यूं  ही
लहरो के चक्रव्यूह में
फंस  जाए तो
जान गँवा दे..!!

यू ही 'प्यार'...
कितना प्यारा है ये शब्द....
“प्यार.......”!!
जब तक ये मिलता रहे
सब स्वर्ग सा लगता है..
जैसे ही गम, जुदाई और डर
दामन छु जाते है प्यार का..
प्यार भी एक जान लेवा,
लहरों  के चक्रव्यूह सा
रूप अख्तियार कर लेता है...,.
और कर देता है..
कयी जिंदगियां तबाह..!!

कैसा रिश्ता है लहरों  का,
प्यार का, और
चक्रव्यूह का...!

Monday 8 November 2010

क्या ऐसे होगा देश निर्माण ???










चाहते नीव हो देश की
सुदृढ और परिपक्व
बने भविष्य देश का
उज्जवल और कर्मठ .


बताते अभिभावक खुद को
देकर गलत संस्कार और प्यार
निभाते हैं फ़र्ज़ ये, देकर
देश को अविकसित बाढ़.


जहाँ दंड दिया तनिक छात्र को
आलोचनाओ से किया शिकार,
सम्मान नहीं दिया शिक्षक को
अतिक्रमण ने भी किया लाचार.


कर्तव्य निष्ठा पर उठे सवाल
मीडिया ने भी दिया उछाल ,
अनुशासित करते ही शिक्षक को
कोर्ट - कचहरी के दिखा दिए द्वार.


माता-पिता को समय नहीं
कि बच्चों का करें उद्धार
कुछ अनपढ़ अभिभावक भी
शिक्षक का ही मुहं रहे ताक .


विश्वकर्मा बन शिक्षक ने भी
गुरु मन्त्र देना चाहा फूंक
मगर जहाँ चोट दी कच्चे घड़े को
अभिभावक ने लिया कुपित स्वरुप.


भय बिनु होत ना प्रीत भी
स्वः अनुशासन भी जानें नहीं
कैसे नीव रखोगे सुदृढ
कैसे देश का बढ़ेगा मान ?


विद्यार्थी करें उदंड व्यवहार
और मूक रहें अध्यापक गण
क्या ऐसे मिलेगा गुरु ज्ञान
या ऐसे होगा देश निर्माण ??

Wednesday 20 October 2010

परिणति



गोधूली की बेला में
सुख दुख के पलड़े में
कलुषित विचारों का
गुरुत्व देख रही हूँ मैं.

क्या किया रे मन तूने  ...
सदा अपनी उम्मीदों
की पूर्णता के लिए
तटस्थ रहा,
प्रलाप करता रहा
अपनी खुशी पाने के लिए.
लेकिन कभी विचारा
कि क्या बोया था तूने ?

दर्द, आंसू, रुसवाई,
जिल्लत, अविश्वास
और उपालंभ ....!

तो ....

कैसे पा सकता था
अपनी उम्मीदों
की लहलहाती फसल ?

ता-उम्र की कमाई
शोहरत को
छीन लिया तूने,
लूट लिया
सिर उठा कर
चलने की
फितरत को भी .
अपनों का वक़्त चुरा
हर सों जिसने
तुझे खुशियाँ देनी चाहि
तूने क्या दिया उन्हें ?

सिर्फ और सिर्फ
वितृष्णा, जफा,
बे-एतबारी के
अल्फाजों के पत्थर ...!

सजाया अपनी
मुहोब्बत को भी
तोहमतों के
गुलदस्ते से,
अम्बार लगाए
मलिन भावों के .

आह !
कितना अधम
हो गया रे मन
आज अपनी ही
नज़रों में.

सात जन्मों के लिए भी
तेरा कृत्य
क्षम्य नहीं है.

यही तेरा दंड है
कि चिरकाल तक
तू इसी दुर्दम वेदना से
लथ - पथ रहे .
अपनी ही क्षुद्र
सोचों के
कटु आघातों
से पल - पल मरे .

तू नहीं है
किसी के
प्यार के काबिल
यही तेरी परिणति है .

Friday 15 October 2010

रिश्ते और मजबूरियाँ



















मन  अक्सर यूँ  सोचा करता है
पिछले जन्मों का कोई रिश्ता है  
तुम संग जो गहरी प्रीत बढ़ी 
रूह से रूह का  कोई नाता है 

बिन कहे ही दिल को आभास हुआ 
जब रूह को कोई भी टीस हुई 
फिर ना जाने क्यों मन टूटा 
क्यों प्रीत में गहरी सेंध लगी.

पहले पहरों - पहरों की बातें 
घंटों में सिमटनी शुरू हुई 
आड़े आ गयी मजबूरियाँ सारी 
दीवारें खिंच खिंच बढती गयी .

धीरे से समझाया मन को मैंने 
कि ऐसा भी कभी होता है 
साथी हो मजबूर बहुत तो 
अरमानों को रोना होता है .

दबे पाँव फांसले आये 
कई रूपों में दमन किया 
अश्क प्रवाह बढते गए 
कड़वाहटों ने फिर जन्म लिया.

विचारों के नश्तर यूं टकराए 
जुबा के उच्चारण बदलने लगे 
मन ने मन की नहीं सुनी 
सुख - दुख भी अनजाने हुए .

इक दूजे को आंसू दे 
दिल के जख्म सुखाने चले 
मरहम जो देने थे आपस में 
मवादों के ढेर जमाने लगे .

विकारों की ऐसी आंधी आई 
भाव शून्य दिल होने लगा  
आह ! कितने हम बदल गए 
अश्कों से भी ना मैल धुला .

हर गम को नौटंकी समझे 
रूह की बातें कहाँ रही 
इतना प्यार गहराया देखो 
रूह के रिश्ते चटक गए .

बस एक आखरी अरज है मेरी  
एक करम और कर डालो 
अंतिम बंधन जो शब्दों का है  
विवशता की उस पर भी शिला धरो .

चाहत अपनी कर दो ज़ाहिर 
अब कोई रिश्ता न शेष रहे 
यादों की गंगा -यमुना में 
ना इस रिश्ते का कोई अवशेष रहे  


Friday 8 October 2010

अडिग खामोशियाँ















तुम्हारी खामोशियों के साथ 
मेरी कुछ चाहतें पड़ी हैं 
जो अपलक प्रतीक्षारत हैं 
खामोशियों की सरसराहट सुनने को .

आगोश में दृगांचल   के 
दो बूँदें भी छुपी हैं 
कि कब तुम खुद से बाहर आओ 
और ये आज़ाद हो 
तुम्हारे मन के पैरहन पर आ गिरें .

जब भी यादों के घने कोहरों 
से झाँक कर देखा है तुम्हें  
सदा प्रेम पुष्प बरसाते हुए 
आँखों में प्यार का 
सागर भरे पाया है.


किन्तु आज ...


आज तुम मौन,
विरक्ति भाव लिए हुए 
अनजान पथ के 
पथिक बन 
मेरी सदाओं से 
अनभिज्ञ ,
मेरी कोशिशों की 
समिधा को 
होम किये जा रहे हो 
आज तुमने अविश्वास के 
हवन में हमारे रिश्ते को 
जला दिया है .

कच्चे धागों में 
जो गहरी भावनाएँ 
बहुत कसावट से 
गूंथी थी ....
एक- एक बल को 
खोल डाला है तुमने 
विकारों की तपिश से.


आज ये खामोशियाँ 
इतनी अडिग  हो गयी हैं 
जो रिश्तों के हवन की 
प्रज्ज्वलित अग्नि 
में स्वाहा होते, 
ढहते अरमानों का 
हा-हा-कार सुन कर भी 
कोई प्रतिक्रिया नहीं करती.

आज भी चाहतें मेरी 
कराह रही हैं 
और 
प्रतीक्षारत हैं कि  
कब तुम्हारी खामोशियाँ 
टूट कर बिखरें 
और थाम लें हाथ 
इन सदाओं का.

Friday 1 October 2010

गरीब विधवा













जानते हैं 
सरहद होती नहीं 
कोई ईमान की..
ये भी सच है कि
हद होती नहीं
कोई फ़र्ज़ की .

तब क्या करे
वो गरीब विधवा 
जो निस्सहाय 
और निरीह हो ?

क्या करे वो 
जब छोटे बच्चों की 
जिंदगी की
सूत्रधार हो ?

इस दुनियां के 
मकड़जाल में,
जब रूप की धूप
तन पे हो 
और इंसानी 
भूखी आँखों का 
ना कोई 
दीन ईमान हो.

कैसी कठिन डगर है उसकी 
जिसका ना 
सरमायेदार हो ?
चल दिया जो छोड़ 
उसे जूतों में लगी 
धूल सा,
चल दिया जो 
पोंछ कर 
कुर्बानियां उसकी 
काँटों के पापोश पर.

क्या करे वो जब 
आत्मा से बड़े 
पेट का संताप हो ?

तब न क्या  
रात के अंधेरों में 
चिल्लर सी 
खर्च हो जायेगी वो ?

या जिंदगी की 
शतरंज  पर 
हर मोहरे  से 
पिट जायेगी वो ?

हाय कैसी ये दुर्गति,
ये कैसा अभिशाप है 
हाय रे विधवा 
गरीबी ही तेरा 
श्राप है ...!!

Tuesday 14 September 2010

मेरी 'मैं' तुम्हारी 'मैं ' से मिलते नहीं...























अशांत सागर है ये पत्थर ना फैंको ए हमनशीं 
दर्द की लहरें  हैं, ना  खेलो, दर्द ना मिल जाए कहीं 

कसक बन के दिल में तुम हलचल सी करते हो 
पास आकार भी ना अपने से बन के मिलते हो .

ठंडी आहों का भी असर तुम पर अब होता नहीं
मनुहार कर के भी तो ये दिल पिघलता नहीं .

छोडो रहने भी दो क्या जिरह करें साकी 
अब मेरी 'मैं' तुम्हारी 'मैं ' से मिलते नहीं.

लो बुझा लेती हूँ अरमानों की इस कसकती  लौ को 
दफ़ना देती हूँ तुझमें  ही इन दगाबाज़ चाहतों  को.

प्यास बुझाने को मयखाने भी कहाँ बचे साकी 
छू भी लें तो वो एहसास कहाँ बचे बाकी.

मुर्दे का कफ़न हूँ मैं भी जिसमें जेबें नहीं होती 
मुंदी पलकों का अश्क हूँ जिसमें तपिश नहीं होती 

टूटे खिलोने भी कहीं  जुडा करते हैं भला..
फैंक दो दिल से कहीं दूर, चुभ ना जाए कहीं.